Basic Accounting Terms
What is Basic Terminology of Accounting :
सभी भाषाओं की अलग अलग कुछ अपने - अपने कुछ words( Terminologies) होते है उसी की तरह Accounts के भी कुछ Terms होते है जिनको हम use करते है, अपने business में Accounting करने के लिए, इन्ही Terms को सरल भाषा मे हम लोग Accounting Terminology कहते है। 1.Business( व्यवसाय) :-
कोई एक ऐसा वैधानिक कार्य, जो आय income लाभ प्राप्त करने के purpose से किया जाता है वो व्यवसाय (Business) कहलाता है। व्यवसाय एक व्यापक शब्द है जिसके अंतर्गत उत्पादन ,वस्तुओं, सेवाओ का क्रय विक्रय, बैंक,बीमा परिवहन कंपनीया आदि आते है।
Example:-
We do only Financial Trasaction in Our Bussiness as Like-
* Gooods purchased worth Rs.5 Lakhs
* Goods sold worth 6 lakhs
* Salary paid to Employees
* Make payment of Expenses through bank
Types of Business
1. Manufacturing ()
2. Trading ()
3. Servises(Servicing) ()
2. Trade(व्यपार):-
Trade का मतलब ये है कि लाभ कमाने के उद्देश्य से किया गया वस्तुओ का क्रय विक्रय ही व्यपार कहलाता है।
Example:- Mr. Silence Purchased a computer in Rs.15000/- in case and he sale(sold) kmnow Rs.20000/-. So mr. Silence take profit of Rs.5000/-
3. Profession(पेशा):-
आय अर्जित करने के लिए किया गया कोई भी काम या फिर साधन जिसके लिए पूरा प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है उसको हम पेशा कहते है।
For Example:- Doctor, Teacher, Engineer itc.
4. Transaction(लेन-देन):-
दो पक्षों में होनेवाले वस्तुओं और सेवाओं का क्रय-विक्रय (Buy-sell) या आदान-प्रदान को लेन-देन (Transaction) कहते हैं। दूसरे शब्दों में किसी वस्तु व सेवा के क्रय-विक्रय एवं परस्पर अदल-बदल को लेन-देन (Transaction) कहते हैं।
Types of Transaction
A. Cash Transaction (नकद लेन-देन ) – जब लेन-देन के लिये तुरन्त ही Cash ले या दे दिया जाता है तो उसे नकद लेन-देन (Cash Transaction) कहा जाता है।
B. Credit Transaction (उधार लेन-देन )– जब किसी लेन-देन का भुगतान भविष्य में करता है तो उसे उधार लेन देन (Credit Transaction) कहा जाता है।
C. Bill Transactions( विपत्र व्यवहार ) - जब माल का क्रय - विक्रय विनिमय विपत्र ( Bills of Exchange ) के माध्यम से होता है तो ऐसे व्यवहार को विपत्र व्यवहार कहते हैं ।
5.- Proprietor/Owner(मालिक):-
वह व्यक्ति या वस्तुवों का समूह जो व्यपार में आवश्यक पूँजी लगाते है, व्यपार का संचालन करते है तथा लाभ व हानि के अधिकारी होते है वो व्यपार के मालिक owner कहलाते है।
Propwriter:-यदि किसी व्यपार का मालिक कोई एक ही व्यक्ति है तो वह एकाकी व्यपारी (Propwriter) कहलाता है।
Partners:-यदि मालिक दो या दो से अधिक व्यक्ति है तो साझेदार (Partners) कहलाते है।
Shear holder:-यदि बहुत से लोग मिलकर संगठित रूप से कंपनी के रूप में कार्य करते है तो वे उस कंपनी के अंशधारी मतलब की (Shear holder) कहलाते है।
6.-Capital (पूंजी):-
व्यपार का स्वामी जो रुपए, माल ,सम्पति आदि चीजे व्यपार में लगाता है उसको ही हम पूंजी कहते है। वह धन जिसे व्यापारी व्यवसाय को चलाने के लिए लगाता है, पूँजी (Capital) कहलाता है। पूँजी एक प्रकार से व्यापार पर कर्ज के रूप में रहती है। व्यापार में लाभ एवं हानि होने पर पूँजी क्रमशः बढ़ती घटती रहती है। or व्यवसाय के स्वामी द्वारा व्यवसाय को प्रारम्भ करने के लिये जो धन , रोकड़ या अन्य सम्पत्ति के रूप में लगाया जाता है , उसे पूंजी कहते हैं । व्यवसाय में पूँजी लाभार्जन के उद्देश्य से लगाई जाती है । लाभ का वह भाग जो व्यवसाय से निकाला नहीं गया है , पूंजी में वृद्धि करता है । अन्य शब्दों में , सम्पत्तियों का दायित्व पर आधिक्य पूँजी कहलाता है ।
Capital= Assets - Liabilities
(पूँजी) = सम्पति -दायित्व
7. Goods( माल):-
माल उस वस्तु को कहते है जिनका क्रय और विक्रय व्यपार में किया जाता है। माल के अंतर्गत वस्तुओ के निर्माण हेतु प्राप्त सामग्री हो सकते है।
8.- Assets(सम्पति):-
व्यापार को सुचारू रूप से चलाने के लिए जो भी स्थायी, अस्थायी, भौतिक या अभौतिक धन व्यापार में लगा रहता है उसे सम्पत्ति कहते हैं। हमारे व्यपार में समस्त वस्तुवें जो व्यपार संचालन में सहायक होती है |
types of Assets
A.Fixed Assets( स्थायी/अचल संपत्ति)-
स्थायी सम्पत्तियाँ वे सम्पत्तियाँ होती हैं जिनका दीर्घ जीवन होता है । ये विक्रय के उद्देश्य से नहीं अपितु व्यापार में निरन्तर प्रयोग के उद्देश्य से खरीदी जाती है । भूमि , भवन , फर्नीचर , उपकरण , मोटर आदि सम्पत्तियाँ इसी श्रेणी में आती है । इन्हें पूँजीगत सम्पत्ति या गैर - चालू सम्पत्ति
Exmaple:- Machines, land and plant ,Furniture ,printer, Computer itc...
B.Current Assets (अस्थायी /चल सम्पति)-
ये वे सम्पत्तियाँ है जो स्थायी रूप से व्यापार में नहीं रहती है । इन्हें बिक्री के उद्देश्य से खरीदा जाता है अथवा रोकड़ में परिवर्तन करने के उद्देश्य से रखा जाता है । जैसे रहतिया , देनदार , प्राप्य विपत्र , बैंक में जमा , स्टोर्स तथा अन्य व्यापारिक वस्तुएँ ।
Example:- Cash , Bnak balance itc....
9.- Liabilities(दायित्व ):-
Liabilities हमारी देनदारी होती है। Liabilities हमारी वो Activities होती है जो owner को छोड़कर हमे सबको देनी होती है या फिर ऐसा कह सकते है कि वो सभी Activities जो व्यपार को अन्य व्यकतियो अथवा अपने स्वामी या फिर स्वामी के प्रति चुकाने होते है वो दायित्व (Liabilities) कहलाते है।
types of Liabilities
A- Fixed Liabilities(स्थायी दायित्व):-
ऐसी देनदारियाँ जिनका भुगतान दीर्घकाल के पश्चात् ( सामान्यतः एक वर्ष के बाद ) करना हो , स्थायी दायित्व कहलाते हैं । जैसे- दीर्घकालीन ऋष्ण ( Long Term Loan ) , पूँजी ( Capital ) , ऋणपत्र ( Debenture ) आदि ।
Example:- Bnak loan , Long terms ..
B- Current Liabilities(चालू दायित्व):-ये वे दायित्व होते हैं , जिनका एक वर्ष में भुगतान करना होता है । जैसे लेनदार , देय विपत्र , बैंक ऋष्ण , बैंक अधिविकर्ष या अन्य अल्पकालीन ऋण ।
Example:- supliers loan , Short terms ..
10.- Expenses(व्यय ):-
हमारे माल के उत्पादन और उसे बेचने में जो भी खर्चे होते है वो व्यय (Expenses) कहलाते है।
Example:- Electricity Expenses, Rent , Salary etc.
Types of Expenses
A. Direct Expenses
B. Indirect Expenses
A. Direct Expenses(प्रत्यक्ष व्यय ):-ये वो खर्चे होते गई जिन्हें व्यपारी माल खरीदतें वक़्त करता है।( Direct Expenses) वस्तु की लागत का एक हिस्सा होता है।
Example: () गाड़ी भाड़ा,() मजदूरी,() फैक्ट्री की बिजली आदि |
B. Indirect Expenses (अप्रत्यक्ष व्यय):- वो सभी expenses जिनका संबध वस्तु के क्रय या उसके निर्माण से ना होकर वस्तु की बिक्री या कार्यलय संबधी होता है।अप्रत्यक्ष व्यय ( Indirect Expenses) कहलाते है। इसके अंतर्गत वो expenses है |
Example: () विज्ञापन,() विक्रय पर गाड़ी भाड़ा,() बिजली का बिल,Discount इत्यादि।
11.-Stock(रहतिया):-
वो सभी items जिनको हमने अभी नही बेचा है वो हमारा stock कहलाता है। और दूसरी भाषा मे ये कह सकते है कि वो सभी items जो अभी मेरे Godown(Store/shope) में है, जिसको मैंने Sale out नही किया है वो Stock कहलाता है।
Closing Stock:-साल के अंत मे जो माल बिना बिके रह जाता है उसको हम Closing Stock कहते है। और अगले साल के पहले दिन वही माल हमारा Opening Stock कहलाता है।
12.- Drawing(आहरण /निजी व्यय):-
व्यपार का स्वामी अपने निजी खर्च के लिए समय-समय पर व्यपार में से जो रुपए या फिर माल निकालता है तो वह उसका आहरण (Drawing) या निजी खर्च कहलाता है। or जब व्यापारी अपने स्वयं खर्च (Self expenses) के लिए व्यापार से नकद रुपया या माल निकालता है तो उसे आहरण या निजी व्यय Drawings कहते हैं।
13.- Sale(विक्रय):-
वो सभी items जिसको हम sale करते है वो sale कहलाती है। मतलब की जो माल बेचा जाता है उसको हम विक्रय कहते है।
Types of Sale
A.Cash sale(नकद विक्रय)- जो माल नकद बेचा जाता है उसको नकद विक्रय( Cash sale) कहते है
B.credit sale(उधार विक्रय)-जो माल उधार बेचा जाता है उसको हम credit sale कहते है।
14.-Sale Return (विक्रय वापसी ):-
जब बेचे गए माल का कुछ भाग विभिन कारणों से व्यपारी लौटा देता है तो इस प्रकार की वापसी को हम विक्रय वापसी (Sale Return/Return Inward) कहते है। मतलब की Goods Return by the customer for any reason.
15.-Purchase(क्रय):- वो सभी items जिसको sale करने के purpose से खरिदा जाता है वो Purchase कहलाती है।
Types of Purchase
A.Cash Purchase (नगद क्रय)-जो माल नकद खरिदा जाता है उसको नकद क्रय( Cash purchase) कहते है
B.Credit Purchase(उधार क्रय)-जो माल उधार बेचा जाता है उसको हम credit purchase कहते है।
16.-Purchase Return(क्रय वापसी):-
जब भी खरिदे गए माल में से कुछ माल विभिन कारणों से वापस कर दिया जाता है तो उसको हम क्रय वापसी (Purchase Return/Return Outward) कहते है। मतलब की Goods Return to the seller for any reason.
17.- Expenditur( खर्च) -
खर्च वह राशि होती है , जो व्यवसाय की लाभ - अर्जन क्षमता की वृद्धि हेतु भुगतान की जाती है । खर्च लम्बी अवधि की प्रकृति से सम्बन्धित है । व्यवसाय में सम्पत्तियों के अधिग्रहण या प्राप्ति ( Aquire ) हेतु जो भुगतान किया जाता है , वह खर्च ( Expenditure ) कहलाता है ।
18.-Loss(हानि) -
जब व्यय आगम से अधिक होते हैं तो व्यय का आधिक्य हानि कहलाता है , जो कि पूँजी में कमी करता है । इसे व्यापारिक दृष्टि से सामान्य हानि समझा जाता है , जबकि आग , चोरी , बाढ, दुर्घटना से होने वाली हानि को असामान्य हानि ( Abnormal Loss ) कहा जाता है ।
19.Gain(लाभ) -
यह एक प्रकार की मौद्रिक प्राप्ति है , जो व्यवसाय के व्यवहार के फलस्थान प्राप्त होती है , जैसे- यदि 1,50,000 रुपये मूल्य की सम्पत्ति को 2,00,000 रुपये में बेचा जाएगा 50,000 रुपये की प्राप्ति लाभ ( Gain )कहलायेगी ।
20. Cost( लागत )-
व्यवसाय एवं उसके कार्यों में प्रयोग होने वाले कच्चे माल ( Raw material ) , सेवा व श्रम के उत्यादन या उसे उपयोगी बनाने हेतु किये जाने वाले समस्त प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष व्ययों के योग को ही वस्तु या सेवा की लागत कहते हैं । वस्तु के अन्तर्गत कच्चा माल या सम्पत्तियाँ शामिल रहती हैं ।
21.Discount (कटौती / बट्टा या छूट ) - व्यापारी द्वारा अपने ग्राहकों को दी जाने वाली रियायत को कटौती , बट्टा , छूट या अपहार कहते हैं ।
Types of Discount
A.Trade Discount (व्यापारिक बट्टा ) - विक्रेता अपने ग्राहकों को माल खरीदते समय उसके अंकित मूल्य में जो रियायत करता है , उसे व्यापारिक बट्टा कहते हैं ।
B. Cash Discount( नकद बट्टा )- निर्धारित अवधि में नकद राशि या चैक द्वारा मूल्य का भुगतान करने पर ऋणी को जो रियायत दी जाती है , उसे नकद बट्टा कहते हैं ।
22.Debtor ( ऋणी या देनदार ) -
जो व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति था व्यापारिक फर्म से माल अथवा सेवाएँ उधार लेता है , उसे व्यापार का ऋणी या देनदार कहते हैं । ऋणी का स्थान ऋणदाता से अधम होता है , इसलिए इसे अधमर्ण भी कहते हैं । ऐसे ऋण की कुल राशि को ' खाता ऋण ' ( Book Debts ) और त्राणियों या देनदारों को ' विविध ऋणी ' ( Sundry Debtors ) कहते हैं ।
23.Creditor (ऋणदाता या लेनद्वार ) -
जिस व्यक्ति या व्यापारिक फर्म से माल अथवा सेवाएं उधार ली जाती है , उसे प्राणदाता या लेनदार कहते हैं । ऋणदाता का ऋणी से उत्तम स्थान होता है , इसलिए इसे उत्तमर्ण भी कहते हैं । व्यापार के ऋणदाताओं को समग्र रूप में ' विविध ऋणदाता या लेनदार ' ( Sundry Creditors ) कहते हैं ।
24. Debtor ( ऋणी या देनदार ) -
जो व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति था व्यापारिक फर्म से माल अथवा सेवाएँ उधार लेता है , उसे व्यापार का ऋणी या देनदार कहते हैं । ऋणी का स्थान ऋणदाता से अधम होता है , इसलिए इसे अधमर्ण भी कहते हैं । ऐसे ऋण की कुल राशि को ' खाता ऋण ' ( Book Debts ) और त्राणियों या देनदारों को ' विविध ऋणी ' ( Sundry Debtors ) कहते हैं ।
25. Creditor (ऋणदाता या लेनद्वार) -
जिस व्यक्ति या व्यापारिक फर्म से माल अथवा सेवाएं उधार ली जाती है , उसे प्राणदाता या लेनदार कहते हैं । ऋणदाता का ऋणी से उत्तम स्थान होता है , इसलिए इसे उत्तमर्ण भी कहते हैं । व्यापार के ऋणदाताओं को समग्र रूप में ' विविध ऋणदाता या लेनदार ' ( Sundry Creditors ) कहते हैं ।
26. Receivables( प्राप्य ) -
व्यवसाय से सम्बन्धित ऐसी राशि जिसको प्राप्त किया जाना है , उसे प्राप्य कहते हैं । व्यापार में माल की उधार बिक्री होने पर क्रेता को देनदार कहा जाता है , जिनसे राशि प्राप्त की जाना होती है । यदि क्रेता द्वारा विपत्र ( Bill ) स्वीकार कर लिया जाता है , तो इसे प्राप्य विपत्र ( Bill Receivable ) कहते हैं । इस प्रकार देनदार तथा प्राप्य विपत्र की राशि को प्राप्य ( Receivables ) कहा जाता है ।
27.Payables ( देयताएँ ) -
व्यवसाय में कुछ ऐसी राशियाँ होती हैं जिन्हें भविष्य में व्यापारी को चुकाना होता है , उन्हें देयताएँ ( Payables ) कहते हैं । जिनसे व्यापार द्वारा उधार माल क्रय किया जाता है , वे व्यापार के लेनदार ( Creditors ) कहलाते हैं । यदि विक्रेता द्वारा लिखित विपत्र क्रेता द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है , तो इसे देय विपत्र ( Bills Payables ) कहते हैं । इस प्रकार व्यापार के लेनदार एवं देय विपत्र देयताएँ ( Payables ) कहलाते हैं ।
28. Entry( प्रविष्टि )- लेन - देन को हिसाब की पुस्तकों में लिखना ' प्रविष्टि करना ' कहलाता है और उसके लिपिबद्ध स्वरूप को ' प्रविष्टि ' कहते हैं ।
29. Turn - over(कुल बिक्री या आवर्त )-
एक निश्चित अवधि में होने वाला नकद तथा उभार विक्रय का योग कुल विक्रय कहलाता है । इसे ' आवर्त ' भी कहा जाता है । जैसे - 5 लाख रुपये का विक्रय नकद और 6 लाख रुपये का विक्रय उधार हुआ है तो कुल बिक्री 11 लाख रुपये की होगी
30. Insolvent( दिवालिया ) - जो व्यक्ति अपना ऋण चुकाने में असमर्थ हो जाता है , उसे दिवालिया कहते हैं । ऐसे व्यक्ति का दायित्व उसकी सम्पत्ति के मूल्य से अधिक होता है । ऐसी स्थिति में वह अपना ऋाण पूरी मात्रा में नहीं चुका सकता । आंशिक रूप में ब्राण चुकता करने के लिए उसे न्यायालय की हाण लेनी पड़ती है । न्यायालय उसे दिवालिया घोषित कर आंशिक रूप से ऋण चुकाने की अनुमति दे देता जिससे वह अपने ऋण से मुक्त हो जाता है ।
31. Income ( आय )- वह राशि जिससे व्यापार की पूँजी में वृद्धि हो , आय कहलाती है । इस राशि को ज्ञात करने के लिये आगम ( Revenue ) में से व्यय घटा दिये जाते हैं । जो शेष बचता है , वह आय की गयी होती है ।
32.Bad Debts(डूबत या अप्राप्य ऋण)- ऋाणी के दिवालिया हो जाने के कारण जो रकम वसूल नहीं हो पाती , वह लेनदार के लिए ड्बत त्राण या अप्राप्य ऋण कहलाती है ।
33. Voucher( प्रमाणक )-
लेन - देन को प्रमाणित करने वाले लिखित पत्र को प्रमाणक कहते हैं । बीजक , रकम भुगतान की रसीद , बैंक व्यवहार की पर्चियां आदि प्रमाणक कहलाते हैं । लेन - देन की प्रविष्टि करते समय पुस्तकों में इनका हवाला दिया जाता है ।
34.Account ( खाता ) -
किसी व्यक्ति , फर्म , वस्तु , सम्पत्ति या आव - व्यय से सम्बन्धित सभी व्यवहारों को छाँटकर जो पृथक - पृथक सूची बनाई जाती है , उसे खाता कहते हैं । प्रत्येक खाता एक तालिका के रूप में दो पक्षों में बँटा रहता है । बायें पक्ष को नाम या डेबिट तथा दाहिने पक्ष को जमा या क्रेडिट कहते हैं ।
35.Debit and Credit(नाम और जमा ) - प्रत्येक खाते के दो पक्ष होते हैं । बाएँ पक्ष को नाम या विकलन ( Debit ) तथा दाहिने पक्ष को जमा या समाकलन ( Credit ) कहते हैं ।
किसी खाते के बाएँ पक्ष में लेखा करना ' नाम लेखा ' ( Debit Record ) कहलाता है , जिसे परम्परागत रूप में संक्षेप में Dr. लिखते हैं ।
36.Financial Events(वित्तीय घटनाएँ ) -
व्यापार में ऐसे अवसर भी आते हैं , जिनके फलस्वरूप व्यापार की सम्पत्तियों , माल तथा सेवाओं के मूल्यों में परिवर्तन हो जाता है । इन अवसरों को ही वित्तीय घटनाएँ कहते हैं , जैसे- सम्पत्तियों के मूल्य में हास या वृद्धि , अदत्त वेतन , स्कंध का मूल्य बाजार में गिर जाना , आग या चोरी से हानि आदि
37. Commission(कमीशन )-
व्यापारिक कार्यों में सहयोग करने अथवा प्रतिनिधि ( एजेण्ट ) के रूप में सेवाएं देने पर जो पारिश्रमिक सहयोगी को दिया जाता है , उसे कमीशन कहते है । कमीशन कई प्रकार का होता है , जो कि विभिन्न आधारों पर दिया जाता है
38. Revenue( आगमगत ) -
इस प्रकार की मर्दे जो आवर्तक ( Recurring ) स्वभाव की होती है , जो व्यवसाय के सामान्य संचालन से सम्बन्धित क्रियाएँ जैसे- क्रय - विक्रय तथा ब्याज , कमीशन , बट्टा , लाभांश आदि के रूप में होती हैं , आगमगत या आगम मदें कहलाती है । इनका लाभ चालू वित्तीय वर्ष में ही प्राप्त होता है ।
39. Firm( फर्म ) -
सामान्य अर्थ में फर्म से आशय उस संस्था से है , जो कि साझेदारी स्थापित कर व्यापारिक या व्यावसायिक कार्य करती है , किन्तु व्यापक अर्थ में प्रत्येक व्यापारिक इकाई को फर्म के नाम से सम्बोधित किया जा सकता है ।
40.Live Stock( जीवित स्टॉक )- व्यापारिक कार्यों में जिस पशुधन का उपयोग किया जाता है , उसे जीवित स्टॉक कहते हैं । जैसे- गाय , बैल , भैंस , घोड़े , ऊँट आदि ।
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